
न वफ़ा हुई हम से, न हुई बेवफ़ाई,
यूँ ही बिछड़ गए हम, कि बस रह गई तन्हाई।
न सलाम आया उनका, न कोई पयाम आया,
पूछा ख़ुदा से — आख़िर क्या क़सूर था मेरा?
क्या मेरा इश्क़ फ़रेब था, या थी कोई रुसवाई?
ख़ुदा ने फ़रमाया — ये क़िस्सा लिखा ही था मैने अधूरा ।
न तेरी ख़ता थी, न उसकी बेवफ़ाई।
तेरी तलब की हद्द ने ऐसा जूनून बख्शा
हम खुद को भूल बेठे तुझे याद करते करते ...
मैंने हँसते हुए गरीब देखे
काफी दौलत थी उसके चहेरे पे
न कसूर उनका था, न गलती हमारी थी,
कुछ किस्सों की तकदीर अधूरी ही होती है
यह तो आप पढ़ते हो इसलिए इनमें जज़्बात आ जाते है..
वरना हमारी शायरी में वो बात कहा जो आपका तारुफ़ कर सके..!
वक़्त रहते लौट आना
कहीं ऐसा न हो कि
वक़्त तो रहे हम न रहे।